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आदि किसान और बनिया

 फेसबुक पर एक आदि किसान नाम की विचारधारा के अनुयायी मिलते हैं। कुछ लोग हैं जो अपने को आदि किसान बोलकर दिनभर गंदगी फैलाते हैं। ये लोग अपेक्षाकृत रूप से हाल में बनी किसान जातियों से आते हैं। इनका एक विशेष काम है दिनभर बनियों को गालियां देना। हर राजनीतिक विचारधारा को राजनीतिक गोलबंदी के लिए एक दुश्मन चाहिए होता है। इनके लिए वो दुश्मन प्रमुख्तः बनिए हैं जो कि  बड़ी विडंबना वाली बात है क्योंकि 'आदि किसान' नामक शब्दावली पर बनियो का ही दावा सबसे ज्यादा बनता है। एक शुद्ध किसान जाति में उद्यमशीलता, सामुदायिक सहयोग की भावना, जुझारूपन आदि कई गुण होते हैं जो खेतीहर से वणिक बनने की प्रक्रिया में सहायक होते हैं। इसलिए प्रायः शुद्ध किसान समुदायों का व्यवसायिक समुदाय में परिवर्तन होता रहा है। मनुष्य द्वारा कृषि में जब अधिशेष का उत्पादन हुआ तो वाणिज्य का विकास हुआ। अमुक कृषक समुदायो में से ही वाणिये बने। शायद कृषि और व्यापार के इस करीबी संबंध के कारण ही वर्णवादी व्यवस्था में कृषक और वणिक को एक ही वर्ग वैश्य में रखा गया है। भारतीय इतिहास में किसान जातियां वणिको में परिवर्तित होती रही हैं जिसक

क्या जाति को खत्म किया जा सकता है?

वर्ण को खत्म किया जा सकता है क्योंकि ये कृत्रिम है। वैसे भी ये ब्राह्मण धर्म के एक सिद्धांत रूप में ही ज्यादा रहा प्रैक्टिकल पूरी तरह कभी लागू नही हो पाया। लेकिन जाति को कोई कैसे खत्म कर सकता है? जाति का बनना बिगड़ना अधिकतर प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसे कोई बना नही सकता तो इसे कोई खत्म कैसे कर सकता है? और कोई जाति को खत्म क्यों करना चाहेगा? दुनिया के सभी प्राणियों में विविधता एक वांछित लक्षण है। अपने हितों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए संप्रदाय गुट या जाति रूप में संगठित होना प्राणियों में नैसर्गिक प्रक्रिया है। पूरी दुनिया में जाति या संप्रदाय के संगठन के दम पर ही लोगो ने अपनी सुरक्षा के साथ प्रगति भी की है। विश्व ने जो भी प्रगति की है उसमे जातीय संगठन का बड़ा हाथ रहा है।   भारत दुनिया का सबसे ज्यादा कृषि योग्य भूमि वाला देश रहा है, सबसे ज्यादा भौगोलिक, नस्लीय, भाषाई भिन्नताओ वाला देश भी रहा है इसलिए यहां एक विशेष प्रकार की जातीय व्यवस्था पैदा हुई। लेकिन इसी जाति व्यवस्था के कारण सुरक्षा शांति सहिष्णुता और उन्नति सुनिश्चित हुई। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। जहां पश्चिमी सभ्यता का

मुजफ्फरनगर जिला- यहां क्षत्रियों के पास रहती है जीत कि चाबी

मुजफ्फरनगर जिले के बारे मे चर्चित है कि ये जाट बहुल जिला है जो कि बहुत बड़ी गप्प है. जबकि असलियत मे यह मुस्लिम बहुल जिला है जहां हर सीट पर 35% से 42% तक मुस्लिम वोट हैं. जाति के आधार पर यह मिश्रित आबादी वाला जिला है जहां गैर दलितों मे किसी भी जाति कि 10% आबादी भी नहीं है. किसी जाति का बाहुल्य माने जाने के लिए उस जिले मे कम से कम 20% आबादी तो उस जाति कि होनी ही चाहिए लेकिन मुजफ्फरनगर मे जाट वोट मात्र 8% ही हैं. जाटों के अलावा क्षत्रिय, सैनी, वैश्य, ब्राह्मण भी ज्यादा पीछे नहीं है. इसके अलावा कश्यप, त्यागी और पाल समाज कि भी जिले मे अच्छी आबादी है. अल्पसंख्यक जातियां जैसे जोगी, गुसाईं, नाई, धीमान आदी भी मिलकर बहुत बड़ा वोट बैंक बनाती हैं. इन सभी जातियों मे राजनीतिक जागरूकता और नेतृत्व का अभाव था, जिस कारण एक दशक पहले तक जिले कि राजनीति मे इन समाजो के वोटो कि गिनती ही नहीं होती थी. नेतृत्व के अभाव के कारण कश्यप, सैनी, पाल, त्यागी आदी जातियां किसान राजनीति के प्रभाव मे आकर जाट उम्मीदवारो को ही वोट कर आती थी. इसी तरह देहात क्षेत्र के मुसलमानो मे भी नेतृत्व के अभाव और किसान राजनीति के प्रभाव के

राजपूतो में चौरासी की अवधारणा

राजपूतो में राजपूतो की ज्यादातर बसापत गांवो के समूह के रूप में मिलती हैं। 12 गांव, 24 गांव, 42 गांव, 84 गांव आदि। इन्हें खाप कहा जाता है। ये राजपूतो में ही मिलती है या राजपूतो से गिरकर दूसरी जाती में गए वंशो में। दूसरी जातियों में भी सिर्फ उन्ही वंशो की एक गोत्र की खाप मिलती है जो राजपूतो से गिर कर उनमे शामिल हुए हैं। क्योंकि राजपूतो की ही बसापत सैनिक सेवा के बदले जागीर मिलने से होती थी। इसके अलावा खुद से भी किसी क्षेत्र को जीता जाता था लेकिन उसके बाद अपने से बड़ी ताकत से पट्टा अपने नाम लिखवाया जाता था जो कि गांवो के समूह के रूप में ही होता था। जागीर एक दो गांव की भी हो सकती थी लेकिन ज्यादातर कई गांवो की होती थी। अब जरूरी नही कि जितने गांवो की जागीर मिली है उन सभी गांवो में उन राजपूतो की बसापत हो। लेकिन समय के साथ आबादी बढ़ने से जागीर के अन्य गांवो में भी फैल जाते थे। बाद में खुद खेती भी करने लगे। राजपूतो की इन खापो में सबसे ज्यादा लोकप्रिय संख्या 84 की थी। 84 क्या है इसको जानना बहुत जरूरी है। भारतीय संस्कृति में संख्या 84 का बड़ा धार्मिक महत्व रहा है। इसे शुभ माना जाता रहा है। इसील

कौशिक राजपूत वंश

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कौशिक राजपूत वंश का नाम प्रसिद्ध क्षत्रिय राजा कुश के नाम पर पड़ा। यह राजा कुश राजा रामचंद्र के पुत्र कुश से अलग हैं। इसी वंश में प्रसिद्ध राजा गाधि हुए हैं। राजा कुश या कुशिक के ही वंशज क्षत्रिय ऋषि विश्वामित्र थे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विश्वामित्र और उनके वंशजो को अयोध्या के राजा रामचंद्र ने सर्यूपार क्षेत्र में सरयू(घाघरा) और राप्ती नदी के बीच का इलाका दान में दिया। ठीक इसी क्षेत्र में हजारों साल तक शासन करते हुए ऋषि विश्वामित्र के वंशज कौशिक राजपूत आज भी विद्यमान हैं। कालांतर में इस वंश में राजा धुर चंद हुए जिन्होंने धुरियापार नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। धुरियापार में उनके किले के अवशेष अब तक मौजूद हैं। इस वंश के उत्तर में श्रीनेत राजपूतो का राज्य था और पूर्व में बिसेन राजपूतो का। सरयूपारीण क्षेत्र के ये क्षत्रिय वंश स्वतंत्र अवस्था में शांतिपूर्वक शासन करते थे। सल्तनत काल में ये किसी सुलतान को कोई खिराज या नजराना नही देते थे। इन वंशो के राज्य आपस में नदियों या जंगलों से बंटे हुए थे। अधिकतर समय बिना किसी टकराव के शांतिपूर्वक अपने राज्यो को भोगते थे। तै